मंगलवार, 10 सितंबर 2013

हथेली खींचती है दांत को


मेरे हाथ में मेरा ही एक टुकड़ा है। मेरा विज़डम टूथ। कुछ दिनों पहले निकलवा दिया था। सड़ने लगा था। डॉक्टर ने निकाल दिया। मैंने ले लिया। एक प्लास्टिक की डिब्बी में बंदकर घर के एक कोने में रख दिया। 

मुँह में उस दांत की जगह ख़ाली है। दांत निकाले हुए कुछ महीने हो गए पर मुँह में एक ख़ालीपन बार-बार अपनी याद दिलाता है। आज जब अपने उस दांत को हाथ में लेता हूँ तो अजीब सा लगता है। जैसे दांत हथेली में वापस मिल जाना चाहता है। हथेली खींचती है दांत को अपनी तरफ। अपने में मिला लेना चाहती है। 

पर नहीं मिल सकता। मुमकिन नहीं। मुँह से निकलकर दांत, बाक़ी संसार में अपनी अलग एक छोटी सी सत्ता बन गया। वो और मैं अब एक नहीं। वो एक है, मैं एक दूसरा एक हूँ। मैं जीवित हूँ। वो भी अपनी तरह से जीवित है। पहले वो मेरी चेतना का हिस्सा था। अब वो मेरी चेतना से बाहर है। उसकी चेतना का राज़ मुझ पर नहीं खुलता। 


मेरा मैं सीमित है। भंगुर है। 

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