बुधवार, 28 सितंबर 2011

सासू माँ का टीवी



शांति की तीन ननदें हैं। दो बड़ी और एक छोटी। सबसे बड़ी ननद सबसे पास रहती हैं पर लगाई-बुझाई के झंझटो से बहुत दूर रहती हैं। न ऊधो का लेना न माधो को देना- वो अपनी गिरस्थी में ही मगन रहती हैं। जब कभी मिलती हैं तो मुहब्बत से मिलती हैं और मुहब्बत से विदा लेती हैं। सबसे दूर रहनेवाली बीचवाली ननद बोलती बहुत हैं और उनका ख़याल है कि खाना बनाने से लेकर सजने-सँवरने और नाचने-गाने तक, खानदान में उनके बराबर कोई है ही नहीं। शांति अगर इस पर मतभेद ज़ाहिर करना भी चाहे तो बीचवाली ननद की प्रवचनधारा के बीच बोलने का मौक़ा नहीं होता। वो बहुत कम आती हैं ओर जब भी आती हैं तो शांति को बस एक ही परेशानी होती है- वो उनकी बातें सुनसुनकर बुरी तरह थक जाती है। बीचवाली को बीच में टोकने और उनकी बोलती बंद कर सकने का साहस सिर्फ़ छोटीवाली ननद में है। उन्हे सब प्यार से पेटपुछनियां कहते हैं क्योंकि वो अपनी माँ की अंतिम संतान हैं और इसीलिए माँ की लाडली भी हैं। ननद के नाम से जिस खट्टे-मीठे रिश्ते की कल्पना की जाती है उस में छोटी ननद अचला एकदम फिट बैठती हैं। जो कुछ प्यार-तकरार होता है उन्ही से होता है। पहले तो बहुत आती थीं पर अब भी साल में दो-तीन चक्कर उनके लग ही जाते हैं।

इस बार वो बड़े दिनों बाद आईं और हमेशा की तरह सासू माँ के कमरे में ही ठहरीं। शांति ने जब से उन्हे देखा है उनके बीच सबसे अलग एक ख़ास रिश्ता रहा है। जब दोनों साथ रहती हैं तो दोनों को तीसरे की मौजूदगी की ज़रूरत नहीं रहती- तीसरा सिर्फ़ चर्चा में रहता है। घंटो दोनों सर से सर जोड़कर दुनिया-जहान की बातें बतियाया करती हैं। सुबह से शाम और शाम से रात हो जाती है पर उनकी बातें खतम ही नहीं होतीं। दोनों एक ही बिस्तर पर सोतीं और बिस्तर पर पड़े-पड़े भी देर रात तक खुसुर-फुसुर करती रहतीं- न जाने क्या। घर में अजय की अपनी बहना और बच्चों की अपनी बुआ से बात होती है पर ज़रा कम। उम्मीद थी कि इस बार भी अचला को दूसरे घरवालों की बहुत ज़रूरत नहीं पड़ेगी। दिन में तो सब घर से निकल ही जाते हैं और शाम को जब घर लौटते हैं तो पहलू में अपनी-अपनी परेशानियों के साथ। न अचला को उनसे बात करने की बहुत बेचैनी होती है और न ही घरवालों को। पर इस बार मामला दूसरा हुआ।

शनिवार को जब शांति घर लौटकर आई तो घर में घुसते ही अचला ने उसे घेर जैसे लिया। बाथरूम जाने के समय को छोड़कर सारे समय अचला शांति के पीछे ही लगी रही। अपने पति-बच्चों, सास-ससुर, घर-परिवार की छोटी-बड़ी सब बातें बिना किसी भेद-भाव के शांति के कानों में उड़ेलती रही। शांति को समझ ही न आया कि बात क्या है। अचानक उमड़ी इन नज़दीकियों को सबब क्या है। बीसियों शिकवे-शिकायतों के बाद एक शिकायत अचला ने अपनी माँ की भी कर डाली।

ये अम्मा को क्या हो गया है..?
क्या हो गया है.. ?
कुछ बात ही नहीं करती..!?
करती तो हैं..
क्या करती हैं..? दिन भर बैठकर टीवी देखती हैं..!
हाँ, टीवी तो बहुत देखने लगी हैं आजकल! शांति ने हामी में सर हिलाया।
बहुत..!!?? बहुत से समझ नहीं आता कि वो कितना टीवी देखती हैं.. सुबह उठकर साढ़े छै तक नहाधोकर तैयार हो जाती हैं और तब से लेकर रात ग्यारह बजे तक देखती ही रहती हैं.. देखती ही रहती हैं.. मैं कोई बात करूँ तो एकाधा मिनट तो देखती हैं मेरी तरफ और उसके बाद नजर वापस टीवी पर.. मैं बोलती जाती हूँ और वो टीवी देखती जाती हैं.. जैसे मैं कोई बकवास कर रही हूँ.. और अपनी तरफ से कोई बात ही नहीं??!! और जब मैं कहूँ कि अम्मा कुछ बात करो.. तो ऐसे बात करती हैं जैसे कोई अजनबी से करता है.. ?? तेरे बच्चे कैसे हैं..? पति कैसा है..? फिर मैं कहती हैं कि अम्मा तुम तो कोई बात ही नहीं करती.. कुछ बात करो.. तो कहती हैं कि क्या बात करूँ.. और फिर मुंडी घुमाके टीवी देखने लग जाती हैं.. बताओ, क्या हो गया है अम्मा को.. ?

शांति के पास अचला के सवाल को कोई जवाब नहीं था। सासू माँ को जो बीमारी हुई थी उसके लक्षण किसी डॉक्टरी की किताब में दर्ज़ नहीं थे। टीवी बहुत देखना और अपनी बेटी से बात न करना - इस लक्षण की कोई बीमारी नहीं है। लगातार दिन-रात चलने वाले चैनल यही मानकर के 24 घंटे अपना प्रसारण जारी रखते हैं कि कोई उन्हे देख रहा है। उन्हे देखना कोई असामान्यता नहीं है और किसी से बात करना या न करना भी कोई असामान्यता नहीं है। फिर भी सासूमाँ का जो बरताव था उसे जीवन की भाषा में स्वस्थ व्यवहार नहीं कहते- उदासीनता कहते हैं।

ऐसा नहीं था कि शांति और अजय ने सासूमाँ में आए इस बदलाव पर ग़ौर नहीं किया था पर यह उनके लिए यह बदलाव धीरे-धीरे एक अरसे में हुआ था। और रोज़-बरोज़ उसका सामना करके वे उसके प्रति निरापद भी हो गए थे। सासूमाँ का लगातार टीवी देखना और किसी से ज़्यादा कुछ बातचीत न करना उन्हे अब चौंकाता नहीं था। उन्होने सासूमाँ की उस उदासीनता को स्वीकार कर लिया था।

उस रात शांति यही सोचते-सोचते सो गई। इतवार को भी पूरा समय अचला ने शांति, अजय और बच्चों के साथ के साथ ही गुज़ारा। और सोमवार की सुबह अपना सामान बाँध लिया। शांति ने कुछ दिन और रुक जाने के लिए कहा भी पर अचला को डर था कि अम्मा तो टीवी देखती रहेंगी वो करेगी क्या। शांति और अजय के साथ अचला भी घर से निकल गई। बच्चे तो पहले ही स्कूल चले गए थे। घर में सिर्फ़ सासूमाँ रह गईँ। उनका टीवी चालू था- वो कहीं नहीं जानेवाला था।


***

(इस इतवार दैनिक भास्कर में छपी)

3 टिप्‍पणियां:

रंजना ने कहा…

काल्पनिक दुनिया में log जब अपनी दुनिया बना लेते हैं,उसी में जीने लगते हैं,तो आस पास के संबंधी होकर भी नहीं होते...

ghughutibasuti ने कहा…

दिन भर सासू माँ अकेली इसी टी वी के सहारे रहती हैं। यदि किसी को फुर्सत के कुछ क्षण मिलें तो बात कर ले तो ठीक अन्यथा टी वी तो है। अचला तो दो चार दिन के लिए आई है। सो सासू जी का अपने टी वी में ही रमे रहना ठीक ही है। उन्होंने अपने अकेलेपन की बीमारी का इलाज ढूँढ लिया है।
घुघूतीबासूती

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

कभी कभी अधिक टीवी देखना रूठने के संकेत हैं।

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