शनिवार, 16 अगस्त 2008

कश्मीर: पत्थर पर दूब

कश्मीर में हिंसा का दौर एक बार फिर से शुरु हो गया है। ऐसा लगता है कि हालात काफ़ी अच्छे हो चले थे मगर प्रशासन की कुछ बेवक़ूफ़ियों के चलते बद से बदतर हो गए हैं। बेशक़ प्रशासन से ग़लतियाँ हुई हैं मगर पत्थर पर से दूब नहीं उगा करती। एक गहरा असंतोष कश्मीरियों के अन्दर भीतर ही भीतर ही सुलग रहा था जो अवसर पाते ही ज़ाहिर हो गया।

श्राइन बोर्ड से समस्या क्यों?
अमरनाथ श्राइन को दी गई ९९ एकड़ ज़मीन के बारे में कई बाते कही जा रही हैं। पहले तो ये कि ये पूर्व राज्यपाल सिन्हा की घाटी के अन्दर की जा रही ‘एक साज़िश का हिस्सा’ है। दूसरे यह कि किसी बाहिरी व्यक्ति को ज़मीन देना राज्य के क़ानून के खिलाफ़ है। तीसरे यह कि श्राइन बोर्ड में ग़ैर कश्मीरी लोग भरे हुए थे। चौथे यह कि इसके ज़रिये घाटी में हिन्दुओं को बसाने की कोशिश की जा रही है।

बयानों में ये सारी बातें अधिक शालीन भाषा में कही जा रही थीं और तक़रीरों में यही बातें एक भड़काऊ भाषा में। ज़ाहिर है कि दो महीने के लिए अस्थायी शौचालय में किस तरह हिन्दू बसाये जायेंगे इस पर ध्यान देने की किसी ज़रूरत नहीं समझी। क्योंकि मुद्दा श्राइन बोर्ड नहीं था, मुद्दा भीतर बैठा एक अलगाव का भाव था/ है जो किसी रूप में ज़ाहिर होने के लिए मचल रहा था।

उल्लेखनीय है कि मुद्दे और आन्तरिक भाव के बीच यही दूरी जम्मू के आन्दोलन में भी बनी रही। श्राइन बोर्ड के रहने न रहने से बाबा अमरनाथ की गुफ़ा, यात्रा, यात्रियों पर कोई अन्तर नहीं पड़ रहा। और ये बात सच है कि कश्मीरियों ने अपने सारे विरोध के बावजूद यात्रियों और यात्रा को कोई नुक़सान नहीं पहुँचाया। लेकिन जम्मू वाले भी एक गहरे दुराव की भावना का जवाब दुराव की ज़बान से दे रहे थे। जिस के चलते हालात यहाँ तक पहुँचे कि कश्मीर घाटी को जाने वाले राजमार्ग पर ट्रकों की नाकाबंदी हो गई और घाटी की आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति बाधित हो गई।

क्या कश्मीर घाटी का इकोनॉमिक ब्लॉकेड हुआ?
इस से इंकार नहीं किया जा सकता कि पैंतालिस पचास दिन लम्बे चले आन्दोलन में घाटी में रोज़मर्रा की चीज़ों की आपूर्ति पर, ज़रूरी दवाईयों आदि पर निश्चित फ़र्क पड़ा होगा। मगर दूसरी तरफ़ आवश्यक वस्तुएं न होने के कारण घाटी में कोई अकाल फैल गया हो ऐसा कम से कम दिखता तो नहीं। क्या आप ने कोई खबर देखी सुनी कि सब्ज़ी आदि के लिए दंगे हुए, या अनाज के लिए लूट हुई, या दवाई उपलब्ध न होने से किसी की जान पर बन आई?

और ऐसा भी नहीं कि घाटी में प्रेस की आज़ादी पर कोई रोक हो? सभी चैनल्स के रिपोर्टर्स स्थानीय कश्मीरी हैं जो इकोनॉमिक ब्लॉकेड की बात बराबर दोहराते हैं; यदि ऐसा होता तो क्या वे उसकी खबर नहीं करते? फिर लोग सब्ज़ी, दवाई आदि की माँग करने के बजाय मुज़फ़्फ़राबाद जाने में अधिक रुचि दिखा रहे हैं। खाने-पीने की इतनी व्यवस्था है कि उत्तेजना में नारे लगा रहे हैं, और सी आर पी एफ़ की चौकियों पर क़ब्ज़ा कर रहे हैं।

वे कह रहे हैं कि कमी हुई तो मान लिया जाय कि अकाल भले न हो पर कमी है। मगर उस कमी ने उन्हे जम्मू के लोगों की माँगों/ भावनाओं को समझने के बजाय मुज़फ़्फ़राबाद से होकर पाकिस्तान जाने वाले दूसरे रास्ते को खोलने की ओर उन्मुख किया। तो क्या वे जम्मू से अधिक जुड़ाव मुज़फ़्फ़राबाद से महसूस करते हैं?

असल मामला क्या है?
दो तीन दिन से हुर्रियत के नेता कहने लगे हैं कि मुद्दा इकोनॉमिक ब्लॉकेड नहीं है, मुद्दा श्राइन बोर्ड को दी गई ज़मीन नहीं है, मुद्दा कश्मीर की हुर्रियत का है.. कश्मीरी भारत के साथ नहीं रहना चाहते। वे आज़ादी चाहते हैं.. स्वतंत्र होने की या पाकिस्तान में मिल जाने की। तो बात साफ़ है कि ये मुद्दे सिर्फ़ अवाम की भावनाओं को भड़काने के लिए थे। मुख्य बात भारत के विरुद्ध एक ग़दर करना है और इस ग़दर में लगभग तीस लोग शहीद हो गए।

वे भारतीय राज्य से क्या उम्मीद कर रहे थे कि वह हज़ारों कश्मीरियों को यूँ ही मुज़फ़्फ़राबाद में चले जाने देगा? अति-संवेदन शील नियंत्रण रेखा जहाँ से लगातार आतंकवादियों को घुसाने की कोशिश होती रही और पिछले दो महीने से बार-बार युद्ध-विराम का उल्लंघन किया जा रहा है। उस नियंत्रण रेखा के पार आम जनता को आने-जाने का हक़ उन्हे कोई सामान्य सुरक्षाकर्मी दे देगा? क्या उन्हे गोली चलने का अन्देशा नहीं था? या वे जानते थे कि इसका क्या खतरनाक अंजाम हो सकता है मगर जनता के भीतर एक ग़ुस्सा भड़काने के लिए उन्होने जानबूझ कर ये क़दम उठाया?

शर्तिया वे जानते थे कि उनके इस क़दम से राज्य की तरफ़ से कुछ हिंसा होगी और जिसका इस्तेमाल वो अपने हित में करना चाहते थे। कश्मीरी नेतागण एक स्वर से अपने इस पूरे आन्दोलन को एक बेचारी, सताई हुई मगर फिर भी सेक्यूलर छवि देने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं।

मेरे एक कश्मीरी मित्र का आकलन है कि कश्मीरियों को पैथेटिक प्ले (दयनीय बनने का नाटक करना) करने की बीमारी होती है, और इस वक़्त भी वे यही कर रहे हैं बल्कि पिछले साठ साल से करते आ रहे हैं। वो पैथेटिक प्ले कर रहे हों या नहीं हालात सचमुच पैथेटिक हैं।

कश्मीरी अलगाववाद क्या एक साम्प्रदायिक आन्दोलन है?
कश्मीरियों नेताओं, अवाम और बुद्धिजीवियों का मानना है कि उनका आन्दोलन सेक्यूलर है और पूरी तरह से कश्मीरियत की भावना से ओत-प्रोत है। कश्मीरियत क्या है वो मैं नहीं जानता, और उस पर टिप्पणी भी नहीं करना चाहता। और मैं ये मानता हूँ कि जिस तरह से जम्मू का हर आन्दोलनकारी भाजपाई और संघी नहीं है वैसे ही हर कश्मीरी मुसलमान पाकिस्तान का झण्डा लहराने और हिन्दुस्तान का जलाने में यक़ीन नहीं रखता।

मैं ये भी समझता हूँ कि घाटी से पंडितों को खदेड़ने में चन्द उग्रवादियों की ही भूमिका थी लेकिन किसी भी साम्प्रदायिक दंगे में हिंसा करने वाले चन्द गुण्डे ही होते हैं चाहे वो अहमदाबाद में हो या श्रीनगर में। लेकिन मूक दर्शकों की असहमति किसी तरह से तो दर्ज होनी चाहिये..? जैसे गुजरात के हिन्दू २००२ के दंगो के लिए किसी बड़े पश्चाताप विहीन हैं वैसे ही पण्डितों को भगाने के खिलाफ़ किसी प्रकार की असहमति दर्ज कराने कश्मीरी सड़क पर नहीं उतरे हैं। इसलिए घाटी से अल्पसंख्यकों का सफ़ाया हो जाने पर सेक्यूलरिज़्म का दम्भ करना शायद उनके लिए आसान होगा पर मेरे लिए उसे स्वीकार कर पाना कठिन है।

कश्मीरियों के साम्प्रदायिक न होने के तर्क में एक ही बिन्दु है कि हाल के तमाम प्रदर्शनों के बीच भी अमरनाथ यात्रियों को कोई नुक़सान नहीं पहुँचा। क्या सिर्फ़ अपने से इतर धर्मावलम्बी पर हमला करना ही साम्प्रदायिकता है? मेरे मत से वो दंगाई मानसिकता है मगर साम्प्रदायिकता इस से गहरी चीज़ है, वह तमाम रूप में अभिव्यक्त होती है।

नेट पर उपलब्ध डिक्शनरी डॉट कॉम पर कम्युनलिज़्म का अर्थ यह मिलता है.. strong allegiance to one's own ethnic group rather than to society as a whole यानी समूचे समाज से अधिक अपने जातीय समुदाय के प्रति प्रबल निष्ठा।

अगर यहाँ समूचा समाज पूरा हिन्दुस्तान न भी समझा जाय तो कम से कम जम्मू व कश्मीर राज्य ही माना जाय। एक समस्या है जिसके दो पहलू हैं- कश्मीर और जम्मू। इस में दोनों ही पक्ष के लोग दूसरे को साम्प्रदायिक और खुद को सेक्यूलर बता रहे हैं। जम्मू वालों में प्रबल साम्प्रदायिक तत्व हैं ये सभी मानने को तैयार हैं मगर कश्मीर वाले आन्दोलनकारी सब सेक्यूलर हैं ये मानने में मुझे तक़लीफ़ हो रही है।

न तो वे धर्म-निरपेक्षता के अर्थ में सेक्यूलर हैं और न ही सर्व धर्म सम भाव के अर्थ में। और ग़ैर-साम्प्रदायिक के अर्थ में यदि वे सेक्यूलर हैं तो उनकी निष्ठा के दायरे में जम्मू के हिन्दू भी तो आने चाहिये? मगर घाटी के सभी नेता, जी सभी नेता सिर्फ़ कश्मीर घाटी की संवेदनशीलता को समझते हैं और उसके दर्द, उसके आक्रोश और उसके नाइंसाफ़ियों के लिए दिल रखते हैं, जम्मू के दर्द और आक्रोश के लिए उनके दिल में जगह क्यों नहीं जबकि पाकिस्तान और फ़िलीस्तीन के लिए है? क्या महज़ अपने जातीय समुदाय के प्रति निष्ठा यानी साम्प्रदायिकता नहीं है?

लेकिन आप कश्मीरियों को सीना ठोंक-ठोंक कर खुद को सेक्यूलर और जम्मू वालों को हिन्दू हूलिगन्स कहने से नहीं रोक सकते। ये उनका अधिकार है कि किसी शब्द का वो कैसे इस्तेमाल कर सकते हैं। शब्दों में उनके सही अर्थ बने रहने की उम्मीद करना आज की तारीख में बचकाना चिंतन है।

कश्मीर क्या एक और फ़िलीस्तीन है?
कश्मीरी लोग अकसर अपनी तुलना फ़िलीस्तीन से करते हैं। ये ठीक बात है कि कश्मीर घाटी में सेना की बड़ी मौजूदगी है और उनके द्वारा अक्सर मानव अधिकारों का हनन भी होता है। पर ये कोई अनोखी स्थिति नहीं है। दुनिया के किसी भी भाग में आप सेना से मानवीय व्यवहार की उम्मीद नहीं कर सकते, उसका चरित्र ही अमानवीय है। वो चाहे बुश का इराक़ या सद्दाम का, मुशर्रफ़ का पाकिस्तान हो या भारत के उत्तर पूर्वीय राज्य; सेना का चरित्र दमनकारी ही रहता है।

कश्मीर के लोगों का दूसरी बड़ी शिकायत उनके लोकतांत्रिक अधिकारों को लेकर है। सत्तासी-अट्ठासी के चुनावों में बड़े पैमाने पर धांधली हुई और जीते हुए उम्मीदवारों को हरा दिया गया। इन में से एक सैय्यद सलाहुद्दीन भी थे जो पाकिस्तान स्थित कश्मीरी आतंकवादी संगठन हिज़्बुल मुजाहिदीन के मुखिया हैं। चुनावी धांधलियाँ भी भारत और दुनिया भर में आम हैं। इन असंतुष्ट कश्मीरियों का चहेता पाकिस्तान तो उल्लेख योग्य भी नहीं जबकि अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश खुद एक धांधली के बाद ही अमरीकी राष्ट्र के मुखिया की गद्दी पर क़ाबिज़ हुए।

कश्मीरियों पर अत्याचार के ये दो मुख्य आधार जायज़ ज़रूर हैं पर उन्हे किस नज़र से फ़िलीस्तीन के समकक्ष रखते हैं मेरी समझ के बाहर है। कैसे कोई कश्मीर और फ़िलीस्तीन को एक ही वाक्य में कह सकता है?

कश्मीर के मुसलमानों को बेघर किया गया .. नहीं।
उनके घरों को ढहाया गया.. नहीं।
उनकी ज़मीन छीनी गई.. नहीं।
बाहर से लाकर विधर्मियों को बसाया गया.. नहीं।
ये किस तरह का फ़िलीस्तीन है?

उलटे खुद कश्मीरियों ने घाटी के अल्पसंख्यकों को खदेड़ कर बाहर कर दिया और फिर भी वे खुद की तुलना फ़िलीस्तीनियों से करने का मंशा रखते हैं। आखिर फ़िलीस्तीनियों और कश्मीरियों में क्या समानता है, सिवाय इसके कि दोनों मुसलमान हैं? और यदि यही उनके साथ (और पाकिस्तान के साथ) एकता और जुड़ाव महसूस करने का एकमात्र बिन्दु है तो ये साम्प्रदायिकता नहीं तो और क्या है?

क्या उन्हे अलग होने का हक़ है?
हिन्दुस्तान ने कश्मीर पर हमला कर के क़ब्ज़ा नहीं किया। कश्मीर के राजा हरि सिंह ने हिन्दुस्तान और पाकिस्तान से स्वतंत्र एक लग राज्य के रूप में कश्मीर के अस्तित्व को रखने का फ़ैसला किया था। मगर जब पाकिस्तानी कबाईलियों ने हमला किया तो हरि सिंह घबरा गए। क्योंकि पाकिस्तान के साथ जाने से कश्मीर के मुसलमानों का तो कोई नुक़्सान न होता मगर घाटी के पण्डितों, जम्मू के डोगरों और लद्दाख के बौद्धों का जीवन संकट में पड़ जाता।

इसलिए उन्होने पाकिस्तान के साथ न मिल कर धर्म निरपेक्ष हिन्दुस्तान के साथ मिलने का फ़ैसला किया, लेकिन अपनी स्वायत्तता की शर्त के साथ जो धारा ३७० के रूप में भारतीय संविधान में ससम्मान शामिल की गई। कश्मीर को भारतीय संघ में शामिल करने के बाद ही भारतीय सेना उनकी मदद के लिए गईं। और तब की नियंत्रण रेखा आज तक क़ायम है।

पाकिस्तान बार-बार जिस संयुक्त राज्य के प्रस्ताव की बात करता है उस के अनुसार पहले पाकिस्तानी सेना को उसके द्वारा अधिकृत कश्मीर को खाली करना होगा उसके बाद ही किसी जनमतसंग्रह किया जा सकता है। (और कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने वाले नेहरू थे, जिन्ना नहीं।) पाकिस्तान जनमत संग्रह की बात तो करता है मगर खुद के क़ब्ज़ियाए हुए कश्मीर को खाली करने की नहीं। पाकिस्तान सिर्फ़ भारत अधिकृत कश्मीर में यह जनमत संग्रह कराना चाहता है कि वे भारत में रहेंगे, पाकिस्तान में, या एक स्वतंत्र राज्य में?

मेरी निजी राय है कि कश्मीरी आन्दोलन साम्प्रदायिक है। मगर उस के साम्प्रदायिक आन्दोलन होने से वे कोई कम मनुष्य नहीं हो जाते और मानवीय अधिकार उतने ही बने रहते जितने कि किसी और के। यदि वे अलग होना चाहते हैं तो उन्हे अलग होने देना चाहिये। किसी जाति, किसी समूह को आप बन्धक बना कर अपने साथ नहीं रख सकते और न रखना चाहिये। इस में न उन का लाभ है न हमारा उलटे दोनों का नुक़्सान है।

कश्मीरियों को पाकिस्तान से मिलना है, मिल जायँ। मेरे अनुसार तो उन्हे यह हक़ बहुत पहले दे देना चाहिये था। अगर आज कश्मीरी पाकिस्तान के साथ होते तो हो सकता था कि वे हिन्दुस्तान के क़रीब होते और पाकिस्तान के खिलाफ़ अत्याचार का आरोप लगा रहे होते। पर भारत सरकार ने न तो उन्हे अपने यूनियन में मिलाया और न ही अलग होने दिया। भारत सरकार के लिए साँप-छ्छूँदर की स्थिति बनाए रखी और कश्मीरियों के भीतर एक ऊहापोह की।

सवाल बस एक रह जाता है कश्मीरियों को यदि अलग होने/ पाकिस्तान से मिलने का हक़ दिया जाता है तो कश्मीरी पण्डितों के उस ज़मीन पर हक़ का क्या होगा? वो तो फ़िलीस्तीनियों की तरह बहुसंख्यक भी नहीं है और न ही उनको निकालने वाले मुसलमान कहीं बाहर से आए हैं। उन्हे अलग से कोई पानुन कश्मीर तो देने से रहा। और जब भारत के अधिकार में होते हुए वापस कश्मीर लौटने का साहस जब उन पण्डितों में नहीं तो एक बार कश्मीर के पाकिस्तान में मिल जाने के बाद ऐसी कोई सम्भावना बनेगी इस में तगड़ा शक़ है।

13 टिप्‍पणियां:

मसिजीवी ने कहा…

ये कहते हुए शर्मिंदगी महसूस होती है कि कश्‍मीर के सवाल पर हाल की नौटंकी से अब इस मुद्दे से ही उबकाई आने लगी है। थोड़ा थोड़ा सिनिसिज्‍म भी पैठने लगा है...

चाहते क्‍या हैं ये- पूरी पीढ़ी ही है त्रिशंकू प्रतिबद्धता की कन्‍फ्यूज मानसिकता के साथ।

वहॉं की मौतें अब अफगानिस्‍तान की मौतों सा थोड़ा सुदूर प्रभाव देने लगी हैं...संवेदनाओं और लगाव का क्षरण हुआ है। कम से कम मेरे मामले में तो ये सच है, दुखद पर सच।

bhuvnesh sharma ने कहा…

प्रभु आज कश्‍मीर दे दोगे...कल को कुछ और दे दोगे

ये बात भी तो सोचिए कि कूटनीतिक रूप से ये धरती का टुकड़ा कितना महत्‍वपूर्ण है...चीन हमारे सिर पर आकर बैठेगा और हम कुछ ना कर पायेंगे.....और मानवाधिकार...ये किस चिडि़या का नाम है..भारत में लोगों को जितने मानवाधिकार मिले हुए हैं उतने दुनिया में किसी को प्राप्‍त नहीं हैं....यासीन मलिक जैसे आतंकवादी मानवाधिकारों की बात करते हैं और हमारा महान मानवाधिकारवादी बेशर्म मीडिया तक उन्‍हें सर आंखों पर बिठाता है...
और हां.....स्‍वतंत्रता के इस पावन पर्व पर दुनिया के सबसे बड़े मानवाधिकारवादी, सबसे बड़े शांतिदूत और सबसे बड़े संत (गांधीजी से भी बड्डे वाले) महान पं जवाहरलाल नेहरू को नमन....जो वे हमें कश्‍मीर जैसी चिरंतन समस्‍या से निपटने के लिए छोड़ गए...उधर तो पाक और चीन सरेआम दूसरे की टेरिटरी में कब्‍जा कर रहे थे...इधर दुनिया का सबसे महान शांतिदूत संयुक्‍तराष्‍ट् संघ और पंचशील की बातें कर रहा था.
वाह क्‍या महानता है....बारंबार ऐसी महानता को नमन करने को जी चाहता है
भैया गांव में भी जब कोई डकैती डालने आता है तो दोनों तरफ से बंदूक चलती हैं बराब्‍बर....पर यहां तो पहले ही बंदूकें डाले बैठ गये....पता नहीं किस मां की संतान थे जो अपनी पीढि़यों को तो (गांधी राजवंश ?) को हमारे ऊपर राज करने छोड़ गए और हम भारतीयों को ऐसी समस्‍याओं से जूझने जिनसे पार पाना संभव ही नहीं

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

सही चिंतन है। पर निष्कर्ष उबाल देने वाले।

Ashok Pandey ने कहा…

''सवाल बस एक रह जाता है कश्मीरियों को यदि अलग होने/ पाकिस्तान से मिलने का हक़ दिया जाता है तो कश्मीरी पण्डितों के उस ज़मीन पर हक़ का क्या होगा? वो तो फ़िलीस्तीनियों की तरह बहुसंख्यक भी नहीं है और न ही उनको निकालने वाले मुसलमान कहीं बाहर से आए हैं। उन्हे अलग से कोई पानुन कश्मीर तो देने से रहा। और जब भारत के अधिकार में होते हुए वापस कश्मीर लौटने का साहस जब उन पण्डितों में नहीं तो एक बार कश्मीर के पाकिस्तान में मिल जाने के बाद ऐसी कोई सम्भावना बनेगी इस में तगड़ा शक़ है।''

इसका एक समाधान है : कश्‍मीरियों को जहां जाना हो, जाने दिया जाए। लेकिन उनके साथ इस देश में रहनेवाले वे लोग भी चले जाएं जो अलगाववादी कश्‍मीरियों को सेकुलर मानते हैं। सेकुलर सेकुलर के साथ रहें तों ज्‍यादा अच्‍छा, गैर-सेकुलरों के पड़ोस में रह कर अपनी आत्‍मा को कष्‍ट क्‍यों देंगे। वे जो घर-जमीन छोड़ कर जाएं, उन पर कश्‍मीरी पंडितों को बसा दिया जाए। समस्‍या हमेशा के लिए खत्‍म।

मैं सांप्रदायिक नहीं हूं। लेकिन धर्मनिरपेक्षता मेरे लिए भावना है, नारा नहीं। और आज के स्‍वघोषित सेकुलरों को देखते हुए सेकुलर कहलाना तो मैं कतई पसंद नहीं करूंगा। वैसे भी अंग्रेजों की भाषाई गुलामी मुझे पसंद नहीं।

राजीव रंजन प्रसाद ने कहा…

अभय जी,


आपके इस आलेख की सार्रगर्भिता से मैं बेहद प्रभावित हुआ चूंकि यह बहुआयामी दृष्टिकोण प्रस्तुत कर रहा है। कश्मीर के अलगाववादी संभवत: एसे ही सुअवसर की प्रतीक्षा में थे कि सर्द होती घाटी में पुन: आग लगा सकें। साम्प्रदायिकता शब्द से अब सचमुच घिन आने लगी है। जितना इस शब्द नें राष्ट्र को घुन की तरह खाया है उतना तो राष्ट्र के प्रकट शत्रु धार्मिक उन्माद नें भी नहीं।

हाँ कश्मीर घाटी के भीतर राष्ट्रद्रोहियों की साजिश जिस तरह आन्दोलित हुई है उससे यह राष्ट्र समझ तो सका है कश्मीर समस्या सम्प्रदाय विशेश की समस्या है और प्रदेश के अधिकतम हिस्सों में इस समस्या के लिये कोई स्थान नहीं अपितु वे शिकार हैं।

सच यही है कि जब उस पार से " चले आओ" की आवाजें आ रही हैं इस पार से जाने वाले भी तैयार हैं तो जाने ही दिया जाना चाहिये, समस्या को देश की सीमाओं के बाहर...लेकिन राष्ट्रद्रोहियों को लौटने की सूरत नहीं होनी चाहिये।


***राजीव रंजन प्रसाद

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

अभय जी आपके विश्लेष्ण को पढ़कर हम खुश होने वाले थे कि आपने कश्मीर को भारत से अलग करके पाकिस्तान को गिफ़्ट कर देने की सिफारिश करके अपनी मेहनत पर पानी फेर दिया।
बंटवारे के बारे में जो मोटी बात मुझे पता है वो ये कि रेडक्लिफ़ महोदय ने भारत और पाकिस्तान की सीमा रेखा खींच दी। अब जिन लोगों को जरूरत महसूस हुई वे इस रेखा के इस पार आये या उस पार गये। उस समय कश्मीर भारत का अंग बना। अब जिन्हे भारत में रहना पसंद नहीं है वे बेशक अपना बोरिया- बिस्तर हमेशा के लिए बाँध लें। भारत सरकार से अनुमति लें, पाकिस्तानी सरकार से भीख माँगें और जाकर वहाँ बस जाँय जैसे उनके भाई लोग वहाँ मोहाज़िर बनकर बसे हुए हैं।

भारत की सीमा के भीतर की जमीन पर आँख लगाना तो घटिया बेईमानी कि इन्तहाँ है। इसका साथ आप कैसे दे सकते हैं? इस मामले में मै भुवनेश जी, अशोक जी व राजीव रंजन जी से सहमत हूँ।

मुनीश ( munish ) ने कहा…

प्यारे भय्या जी पाकिस्तान को सिंध चाहिए ..पूरी सिन्धु नदी उसके उदगम समेत । बाकी सब महज़ चुतियापे की बातें हैं । इतने लंबे पदम् पुराण सुने वो जिसमे बुध्धि हो ,. आज के टाईम्स ऑफ़ इंडिया के प्रथम पन्ने पर लाल चौक श्री नगर में पाकिस्तानी राष्ट्र ध्वज लहरा रहा है और ये एक अरब आबादी त्यौहार मन1 रही है । कहने को कुछ है नहीं। अब कुछ न रखा बातों में ,जूते लेलो हाथों में।

बेनामी ने कहा…

जहाँ तक कश्मीर समस्या की विवेचना का प्रश्न है दो-एक तथ्य जो निर्णायक रुप से विवादास्पद हैं,को छोड़कर ठीक है किन्तु बद्धमूल पूर्वाग्रहों एवं भावनात्मक आवेगों के चलते दिया गया निर्णय न केवल अस्वीकार्य है वरन किसी भी स्वाभिमानी भारतीय के लिए लज्जाजनक भी है। दुःख और आक्रोश के साथ मै इतना ही कहना चाहता हूँ कि भविष्य मे आप ऎसी टिप्पड़ी से बचॆं।

Arun Arora ने कहा…

सही कहा आपने , जब चोट नासूर बन जये तो काट कर फ़ेक देना चाहिये पर ध्यान से केवल ट्यूमर ही बाहर फ़ेका जाना चाहिये बाकी नही , काश हम इस ट्यूमर को मुफ़्ती को , यासीन को बाहर मुज्ज्फ़राबाद फ़ेक पाते

संजय बेंगाणी ने कहा…

आप शायद भूल रहे है, कश्मीर सामरिक दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है, धर्मान्ध लोगो की जीद की खातिर बाकी देश को संकट में नहीं डाला जा सकता.

Farid Khan ने कहा…

कश्मीर का आन्दोलन सांप्रदायिक है , इसमें संदेह नहीं है। पर उसे भारत से अलग करने वाली बात हम लोगों के बीच जटिलता पैदा कर सकती है।
बल्कि भारत सरकार को जम्मू और कश्मीर के प्रति किसी सामान्य राज्यों की तरह ही बर्ताव करने का कोई डिवाईस निकालना चाहिए।
मेरा निजि अनुभव है कि भारत सरकार जम्मू कश्मीर के निवासियों के साथ दूसरे देश के नागरिक जैसा बर्ताव करती है। मेरे एक मित्र है जिनका नाम है हेमराज डोगरा ... उन्हें मुम्बई में पास्पोर्ट बनवाने के लिए जम्मू से अपनी नागरिकता का प्रमाण पत्र ले कर आना पड़ा।

मैं सिर्फ़ यह कहना चाहता हूँ कि भारत सरकार ने चूँकि जम्मू कश्मीर के लोगों के साथ ग़ैरों जैसा बर्ताव किया है और करती आ रही है.... ये तमाम आन्दोल चाहे वह घाटी के हों या जम्मू के .... उसी की विकृत अभिव्यक्तियाँ हैं।

Abhishek Ojha ने कहा…

विचारणीय लेख है... बहुत अच्छा विश्लेषण !

बेनामी ने कहा…

'कश्मीरी लोग अकसर अपनी तुलना फ़िलीस्तीन से करते हैं। ये ठीक बात है कि कश्मीर घाटी में सेना की बड़ी मौजूदगी है और उनके द्वारा अक्सर मानव अधिकारों का हनन भी होता है। पर ये कोई अनोखी स्थिति नहीं है। दुनिया के किसी भी भाग में आप सेना से मानवीय व्यवहार की उम्मीद नहीं कर सकते, उसका चरित्र ही अमानवीय है। वो चाहे बुश का इराक़ या सद्दाम का, मुशर्रफ़ का पाकिस्तान हो या भारत के उत्तर पूर्वीय राज्य; सेना का चरित्र दमनकारी ही रहता है।'
yah anokhi sthiti nahi hai... lekin iska kya yah matlab hai ki us atyachar ko chalne diya jae jo hamari sena kashmir me kar rahi hai. aapka lekh kafi vicharottejak tha .mere khayal se bharat ko kam se kam apna janmat sangrah wala 40-50 saal purana vaada poora karna chahiye aur saath hi sena ke atyacharon ko kam kiya jana chahiye,AFSPA jaise kale kanoonon ko khatm karne ke baad aur kashmiriyon ko ek samanya jeevan ki or le chalne par pakistan samarthak apne aap kamjor parenge.

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