गुरुवार, 3 जुलाई 2008

दूसरों के आईनों में अपना अक्स

पाकिस्तान और भारत दोनों देश के लोग कश्मीर के नाम पर सर काटने और कटाने को राजी हैं। मगर साठ सालों की इस खींचतान में कश्मीर के भीतर निहित स्वार्थों के ऐसे गड़हे पैदा हो गए हैं जो इस कश्मीरियों की इस त्रिशंकु अवस्था को कभी सामान्य नहीं होने देंगे। ज़ाहिर तौर पर कश्मीर की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार पर्यटन है पर वास्तव में अब कश्मीर की अर्थव्यवस्था पर्यटन पर नहीं आतंकवाद के सहारे चल रही है।

आतंकवाद के नाम पर कश्मीर में भारत से और इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान और खाड़ी के देशों से पैसा उड़ेला जा रहा है। और इसी सब के चलते कश्मीर दुनिया के सबसे भ्रष्ट इलाक़ों में तब्दील हो गया है। जो लोग इस पैसे से अपनी रोटी खा रहे हैं वो क्यों चाहेंगे कि पैसा आना बंद हो जाय।

कश्मीरी लोगों को इस नरक से छुटकारा मिलना चाहिए। वो जो चाहते हैं उन्हे दिया जाना चाहिए.. भले ही वो पाकिस्तान के साथ मिलना ही क्यों न हो। मेरा मानना है कि वो एक शुद्ध साम्प्रदायिक विकल्प है.. पर यदि वे इसी के पक्ष में है तो ये उनका अधिकार है कि वे इसे चुन सकें।

कम से वे उस दुष्चक्र से तो बाहर निकल सकेंगे.. जो उन्हे बाक़ी दुनिया से अलग साठ साल पहले की बँटवारे की मनःस्थिति में बराबर बनाए रखे हुए है। आज जब कि पूरी दुनिया में देश और राष्ट्र जैसी अवधारणाएं धीरे-धीरे बेमानी होती जा रही हैं.. कश्मीर अपनी राष्ट्रीयता को लकर जूझा हुआ है जिसका आधार मुख्य तौर पर साम्प्रदायिक है।

मेरी ख्वाहिश है कि उनकी समस्या का जल्द से जल्द समाधान हो ताकि वे अपने असुरक्षा-जनित चिन्तन से मुक्त हो सकें। पर दुख है कि ऐसा होने की ज़मीनी हालात अभी तो नहीं दिख रहे.. दिख तो बस इतना रहा है पर अब कश्मीर के किरदार के नाम पर राजनीति घाटी के अन्दर ही नहीं उसके बाहर भी शुरु हो गई है। जम्मू तो जल ही रहा है.. अब भाजपा और विहिप ने देशव्यापी बन्द के ऐलान के साथ दूसरी भी धमकियाँ दे डाली हैं। जैसे कि वो अजमेर में आने वाले श्रद्धालुओं का रस्ता रोकेंगे। और हज के लिए दी जाने वाली सब्सिडी का विरोध करेंगे।

भाजपा और विहिप बार-बार हिन्दुओं को किसी दूसरे के सन्दर्भ में ही परिभाषित होने के लिए क्यों प्रेरित करते हैं? क्यों? क्या हिन्दुओं का अपना कोई स्वभाव, किरदार, मूल्य-विधान नहीं है? या असल में हिन्दू नाम का कोई समुदाय है ही नहीं? मध्यकाल में भारत की विविध सामुदायिक पहचानों से अपरिचित टिप्पणीकारों ने ग़ैर-मुस्लिम समुदायों को एक नाम -हिन्दू- देकर सहूलियत का दामन पकड़ा। और तब से आज तक हिन्दू की परिभाषा गैर-मुस्लिम के अर्थ में ही चली आ रही है।

तो क्या इस का अर्थ यह लिया जाय कि हिन्दू नाम से राजनीति करने वाले ये दल आम गैर-मुस्लिम व्यक्ति को मध्यकाल की मानसिक सींखचो में ही क़ैद रखना चाहते हैं। और वो भी वास्तविक नहीं प्रकल्पित सींखचे! क्योंकि इतिहास की जो साम्प्रदायिक व्याख्या वे पेश करते हैं वो सबूतों पर नहीं खामख्याली पर खड़ी है।

1 टिप्पणी:

अनामदास ने कहा…

पूर्ण सहमति. अँगरेज़ी स्टाइल में कहें तो कांट अग्री मोर...
मेरी कई कश्मीरी मुसलमानों से मित्रता है, सबका मानना है कि उनकी पहली पसंद है कि उन्हें अकेला छोड़ दिया जाए, हालाँकि वे मानते हैं कि ऐसा व्यावहारिक और संभव नहीं है.

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