सोमवार, 25 जून 2007

अछूत कौन थे - ५

अध्याय ८: छुआछूत की व्यवसायजन्य उत्पत्ति

श्री स्टैनली राइस के इस सिद्धान्त के अनुसार छुआछूत का कारण अछूतों के गंदे और अपवित्र पेशों से उपजता है। ये सिद्धान्त तार्किक लगता है। मगर इस तरह के पेशे दुनिया के हर समाज में पाये जाते हैं तो दूसरी जगहों पर उन्हे अछूत क्यों न समझा गया?

नारद स्मृति से पता चलता है कि आर्य स्वयं इस प्रकार के गंदे कार्य करते थे। नारद स्मृति के अध्याय ५ में कहा है कि पवित्र काम करने के लिये अन्य सेवकों का इस्तेमाल किया जाय जबकि अपवित्र काम जैसे झाड़ू लगाना, कूड़ा व जूठन उठाना, और शरीर के अंगो की मालिश करना दासों के विभाग में आता है। शेष काम पवित्र है जो अन्य सेवकों द्वारा किये जा सकते हैं।

सवाल उठता है कि ये दास कौन थे? क्या वे आर्य थे या अनार्य थे? आर्यों मे दास प्रथा थी और किसी भी वर्ण का आर्य दास हो सकता था। दास होने के पंद्रह तरीके नारद स्मृति में अलग से बताये हैं। और दास प्रथा के बारे में याज्ञवल्क्य ने कहा है कि यह प्रतिलोम क्रम से नहीं अनुलोम क्रम से लागू होती है। इसी पर विज्ञानेश्वर ने मिताक्षरी में व्याख्या करते हुए बताया है कि शूद्र का दास सिर्फ़ शूद्र हो सकता है जबकि एक ब्राह्मण, शूद्र वैश्य क्षत्रिय और ब्राह्मण सभी को दास बना सकता है। लेकिन एक ब्राह्मण सिर्फ़ ब्राह्मण का ही दास हो सकता है।

एक बार दास बन जाने के बाद दास के लिये नियत कर्तव्यों में जाति की कोई भूमिका न होती। दास चाहे ब्राह्मण हो या शूद्र उसे झाडू़ लगानी ही होगी। एक ब्राह्मण दास एक शूद्र के घर भले ही भंगी का काम न करे पर उस ब्राह्मण के घर तो करेगा ही जिसका वह दास है। अतः यह साफ़ है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, जो कि आर्य हैं, गंदे से गंदा, भंगी का काम करते हैं। जब यह काम एक आर्य के लिये घृणित नहीं था तो कैसे कहा जा सकता है कि गंदे और अपवित्र पेशे छुआछूत का आधार बन गये? इसलिये छुआछूत का व्यवसायजन्य उतपत्ति का सिद्धान्त भी खारिज करने योग्य है।


भाग ४:
छुआछूत की उत्पत्ति के नए सिद्धान्त

अध्याय ९: बौद्धों का अपमान - छुआछूत का मूलाधार

१८७० से चार जनगणनाओं मे धार्मिक आधारों पर ही लोगों को वर्गीकृत किया जाता था। मगर १९१० में पहली बार नया तरीका अपनाया गया और हिन्दुओ को तीन वर्गों में बाँटा गया; १. हिन्दू, २. जनजाति या आदिवासी, ३. अछूत। हिन्दुओ के भीतर वर्गीकरण करने के लिये दस कसौटियां तय की गईं।

१. ब्राह्मणों का प्रभुत्व नहीं मानते।
२. किसी ब्राह्मण या हिन्दू गुरु से गुरु मंत्र नहीं लेते।
३. देवों को प्रमाण नहीं मानते।
४. हिन्दू देवी देवताओं को नहीं पूजते।
५. अच्छे ब्राह्मण उनका संस्कार नहीं करते।
६. उनका कोई ब्राह्मण पुरोहित नहीं होता।
७. मंदिरों के गर्भ गृह में प्रवेश नहीं पा सकते।
८. स्पर्श या पास आकर अपवित्र कर देते है।
९. अपने मुर्दों को दफ़नाते हैं।
१०. गोमांस खाते हैं।

इन में से क्रम संख्या २, ५, ६, ७, और १० अछूतों से सम्बन्धित हैं और २, ५, व ६ पर इस अध्याय में चर्चा होगी।

सभी प्रांतो के जनगणना आयुक्तों ने पाया कि अछूतों के अपने पुजारी होते हैं। चूंकि ब्राह्मण अछूतों से स्वयं को ऊँचा मानते हैं और घृणा करते हैं इसलिये ये तथ्य मिले हैं ऐसा आम तौर पर समझा गया। किंतु यदि यह कहा जाय कि अछूत भी ब्राह्मणो को अपवित्र मानते हैं तो लोगों को आश्चर्य होगा। मगर एबे दुबोय को ऐसे तथ्य मिले हैं;

"आज भी गाँव में एक पैरिया (अछूत) ब्राह्मणों की गली से नहीं गुज़र सकता। दूसरी ओर एक पैरिया एक ब्राह्मण को अपनी झोपड़ियों के बीच से नहीं गुज़रने देगा क्यों कि उनके विश्वास के अनुसार यह अपशगुन उन्हे बरबाद कर देगा।"

मैसूर के हसन ज़िले के होलेय के बारे में लिखते हैं श्री मैकेन्ज़ी, गाँव की सीमा के बाहर उन होलियरो की बस्ती है, जिनके स्पर्श मात्र से लोग अपवित्र हो जाते हैं' बावजूद इसके सत्य यह भी है कि अगर एक ब्राह्मण होलियरों की बस्ती से बिना बेइज्जत हुए गुज़र पाए तो इसे अपना सौभाग्य समझता है। क्योंकि कोई ब्राह्मण उनकी बस्ती में आए इससे होलियरों को बड़ी आपत्ति है, और इस प्रकार आने वाले ब्राह्मण को वे सब मिल कर जूतों से मारते हैं।

इस अजीबोगरीब व्यवहार की क्या व्याख्या हो सकती है? याद रखा जाय कि अछूत हमेशा अछूत नहीं थे, वे उजड़े हुए कबीलों के लोग या छितरे लोग थे। तो वो क्या वजह थी कि ब्राह्मणों ने इनके धार्मिक रीति रिवाज़ को सम्पन्न कराने से क्यों इंकार कर दिया? या कहीं ऐसा तो नहीं कि इन छितरे लोगों ने ही ब्राह्मणों को मान्यता से देने इंकार कर दिया? इस परस्पर अपवित्रता की धारणा और परस्पर घृणा का कारण क्या है?

इसका एक स्पष्टीकरण यह हो सकता है कि ये छितरे लोग बौद्ध थे और इसी लिये वे ब्राह्मणों का न तो आदर करते थे और न उन्हे अपना पुरोहित बनाते थे। दूसरी ओर ब्राह्मण भी उन्हे पसन्द नहीं करते थे क्योंकि वे बौद्ध थे। अब इसका कोई प्रमाण नहीं कि वे बौद्ध थे मगर चूंकि उस वक्त अधिकाधिक लोग बौद्ध ही थे इसलिये ये माना जा सकता है कि वे बौद्ध थे। और बौद्धों के प्रति घृणा के प्रमाण मिलते हैं;
नीलकंठ की पुस्तक प्रायश्चित मयूख में मनु का एक श्लोक आता है, जिसका अर्थ है-

'यदि कोई आदमी किसी बौद्ध, पाशुपत पुष्प, लोकायत, नास्तिक या किसी महापातकी का स्पर्श करेगा तो वह स्नान करके ही शुद्ध हो सकेगा'।

वृद्ध हारीत ने एक कदम आगे जाकर बौद्ध विहार में जाने को पाप घोषित किया है, जिससे मुक्त होने के लिये आदमी को स्नान करना होगा।

इस दुर्भावना का सबसे अच्छा प्रमाण मृच्छकटिक में है। नाटक का नायक चारुदत्त बौद्ध श्रमण के दर्शन मात्र को अपशगुन मानता है। और खलनायक शकार बौद्ध श्रमण को देखकर मारने की धमकी देता है और पीटता भी है। आम हिन्दू जनों की भीड़ बौद्ध श्रमण से बच बच कर चलती है। घृणा का भाव इतना प्रबल है कि जिस सड़क पर श्रमण चलता है हिन्दू उस पर चलना ही छोड़ देता है। देखें तो बौद्ध श्रमण और ब्राह्मण एक तरह से बराबर हैं। लेकिन ब्राह्मण मृत्युदण्ड और शारीरिक दण्ड से मुक्त है और बौद्ध श्रमण मारा जाता है बिना किसी प्रायश्चित या आत्मग्लानि के मानो इस में कोई बुराई ही न हो।

यह स्वीकार कर लेने में कि छितरे लोग बौद्ध थे, तमाम प्रश्नों के उत्तर हमारे लिये साफ़ हो जाते हैं। लेकिन क्या सिर्फ़ बौद्ध होना ही उनके अछूत होने के लिये पर्याप्त था? इस सवाल का सामना करेंगे हम अगले अध्याय में।

अध्याय १०: गोमांस भक्षण - छुआछूत का मूलाधार

अब बात की जाय जनसंख्या आयुक्त के प्रपत्र की संख्या १० की, जो गोमांस खाने से सम्बन्धित है। जनसंख्या के परिणामों से पता चलता है कि अछूत जातियों का मुख्य भोजन मरी गाय का मांस है। नीच से नीच हिन्दू भी गोमांस नहीं खाता। और दूसरी तरफ़ जितनी भी अछूत जातियां हैं, सब का सम्बन्ध किसी न किसी तरह से मरी हुई गाय से है, कुछ खाते हैं, कुछ चमड़ा उतारते हैं, और कुछ गाय के चमड़े से बनी चीज़ें बनाते हैं।

तो क्या गोमांस भक्षण का अस्पृश्यता से कुछ गहरा सम्बन्ध है? मेरा विचार से यह कहना तथ्यसंगत होगा कि वे छितरे लोग जो गोमांस खाते थे, अछूत बन गए।

वेदव्यास स्मृति का श्लोक कहता है; 'मोची, सैनिक, भील धोबी, पुष्कर, व्रात्य, मेड, चांडाल, दास, स्वपाक, कौलिक तथा दूसरे वे सभी जो गोमांस खाते हैं, अंत्यज कहलाते हैं।' वेदव्यास स्मृति के इस श्लोक के बाद तर्क वितर्क की कोई गुंजाइश नहीं रहनी चाहिये।

पूछा जा सकता है कि ब्राह्मणों ने बौद्धों के प्रति जो घृणा का भाव फैलाया था वह तो सामान्य रूप से सभी बौद्धों के विरुद्ध था तो फिर केवल छितरे लोग ही अछूत क्यों बने? तो अब हम निष्कर्ष निकाल सकते है कि छितरे लोग बौद्ध होने के कारण घृणा का शिकार हुए और गोमांस भक्षण के कारण अछूत बन गए।

गोमांसाहार को अस्पृश्यता की उत्पत्ति का कारण मान लेने से कई तरह के प्रश्न खड़े हो जाते हैं। मैं इन प्रश्नों का उत्तर निम्न शीर्षकों में देना चाहूँगा -

१. क्या हिन्दू कभी गोमांस नहीं खाते थे?
२. हिन्दुओं ने गोमांस खाना क्यों छोड़ा?
३. ब्राह्मण शाकाहारी क्यों बने?
४. गोमांसाहार से छुआछूत की उत्पत्ति क्यों हुई? और
५. छुआछूत का चलन कब से हुआ?

6 टिप्‍पणियां:

काकेश ने कहा…

सही जा रहे हैं काफी रोचक जानकारियां मिल रही हैं..एक बार और साधुवाद कबूलिये.

अफ़लातून ने कहा…

अन्त में पूछे सवालों के रोचक जवाब का इन्तेज़ार है। आपकी साधना के प्रति नतमस्तक ।

बेनामी ने कहा…

Abhay ji Is atyant durooh vishay pr apnaa well reaearched lekh likhne ke liye aap badhaai ke paatra hain parantu main aaj aapsae ek sawaal poochhne ki aagyaa chahta hoon ki kyaa aap yah zaroori nahim samajhate ki aaj in puraane muddon jinhen hamaare aapke poorvajon ne na jaane kin pristhitiyaon mein kuchh kiyaa haoga, unko fir se kabron so baahar laa kr us par vishleShan karne se to bahut hi uttam hoga ki hum aaj sarva dharm sam bhaav ke saath hi sarva jaati sam bhaav ka bhi pryaas karen. itnaa peechhe jaane ki Aavashyakta nahiM hai sirf Kabeer Das, Rahim,Shirdi vale Sai Baba, Ram Krishna Param Hans, Swami Vivekanand ji, Aghoreshwar Avdhoot Bhagwan Ram ji ke disaa niedeshon par yid hum chalen to bahut hI accha hoga. Asali prem tabhi panapega jab hum sabhi manushya maatra mein usi ek Eeshwar ko dekhenge. In puratatva abhilekhom se behtar to ek vyavaharik aadhyatmik karya hota hai jiski aaj bahut hi Aavshyakta hai.

अभय तिवारी ने कहा…

भाई मधुकर जी,
पहले तो मैं यह साफ़ कर दूँ कि ये लेख मेरा नहीं श्री भीमराव अम्बेदकर जी का है जो आज भी बुद्धिजीवी वर्ग के बीच अछूत बने हुए हैं बावजूद इसके कि वे एक समर्पित शोधकर्ता, गम्भीर इतिहासकार और श्रेष्ठ विचारक थे..अपने समय के सबसे मेधावी व्यक्तियों में से एक..

आप की सर्व जाति समभाव की बात सही है.. पर ध्यान दें कि यहाँ अम्बेदकर किसी जाति के प्रति विद्वेष नहीं फैला रहे हैं, इतिहास का सच्चा विश्लेषण कर रहे हैं, जबकि उन्हे स्वयं ब्राह्मणों और दूसरे सवर्णों की घृणा का जीवन भर सामना करना पड़ा..
फिर भी वे कहते हैं कि स्पृश्यों तथा अस्पृश्यों के बीच एकता कानून के बल पर नहीं लाई जा सकती।..केवल प्रेम ही उन्हे एकता के सूत्र में पिरो सकता है।

आध्यात्मिक कार्य तो तमाम बाबा लोग कर ही रहे हैं.. पर ये जानना भी ज़रूरी है कि हम ने क्या गलतियां की है.. क्या है हमारा सच्चा इतिहास.. अपने इतिहास का सच न भी पता चले.. तो भी जिसे सच समझा जा रहा है उस पर सवाल खड़ा करने का बोध आ जाना चाहिये..

azdak ने कहा…

बड़ी है कठिन डगर पनघट की..

Jon mouchi ने कहा…

अभय जी आज मैँने आप का यह ब्लाग पढा कुछ चीजो को पढकर मुझे विश्वास नही हुआ कि यह बाबा साहव का लिखा है क्यूँकि मैँ उनका लिखा अछूतो की उत्पत्ति का सिद्धान्त पढा हैँ एक और बात जब गौ माँस खाने पर छिटके हुए लोग अछूत हो गये तो वही गौ माँस भक्षण करने ब्राह्मण क्योँ अछूत नही हुए

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